पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार गुवाहाटी असम का सबसे बड़ा और बेहद खूबसूरत शहर है। ब्रह्मपुत्रा नदी के किनारे पर स्थित यह शहर प्राकृतिक सुंदरता से ओत-प्रोत है। संस्कृति, व्यवसाय और धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र होने के कारण यहां विभिन्न धर्म के लोग एक साथ रहते हैं। वैसे तो इस शहर में घूमने और देखने के लिए बहुत कुछ है | परन्तु कामाख्या मंदिर यहाँ का रहस्यमय मंदिर है। यदि आपने यहां आकर ये मंदिर नहीं देखा और उसके दर्शन नहीं किये तो समझ लीजिये आपकी यात्रा अधूरी है।
कामाख्या शक्तिपीठ गुवाहाटी (असम) के पश्चिम में 8 कि.मी. दूर नीलांचल पर्वत पर है। माता के सभी शक्तिपीठों में से कामाख्या शक्तिपीठ को सर्वोत्तम कहा जाता है। माता सती के प्रति भगवान शिव का मोह भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के 51 भाग किए थे। जिस-जिस जगह पर माता सती के शरीर के अंग गिरे, वे शक्तिपीठ कहलाए। कहा जाता है कि यहां पर माता सती का गुह्वा मतलब योनि भाग गिरा था, उसे से कामाख्या महापीठ की उत्पत्ति हुई। कहा जाता है यहां देवी का योनि भाग होने की वजह से यहां माता रजस्वला होती हैं।
16वीं शताब्दी में इस मंदिर को तोड़ दिया गया था, लेकिन फ़िर 17वीं शताब्दी में कूच बिहार के राजा नारा नारायणा ने इस मंदिर को दोबारा बनवाया.

ये मंदिर तीन हिस्सों में बना हुआ है. पहला हिस्सा सबसे बड़ा है इसमें हर व्यक्ति को नहीं जाने दिया जाता, वहीं दूसरे हिस्से में माता के दर्शन होते हैं जहां एक पत्थर से हर वक्त पानी निकलता रहता है. कहा जाता है कि महीने में एक बार इस पत्थर से खून निकलता है.
देवी सती ने अपने पिता के खिलाफ जाकर भगवान शिव से शादी की थी, जिसके कारण सती के पिता दक्ष उनसे नाराज़ थे. एक बार राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन करवाया लेकिन अपनी बेटी और दामाद को निमत्रंण नहीं भेजा. सती इस बात से नाराज़ तो हुईं, लेकिन फ़िर भी वो बिना बुलाए अपने पिता के घर जा पहुंची, जहां उनके पिता ने उनका और उनके पति का अपमान किया. इस बात से नाराज़ हो कर वो हवन कुंड में कूद गईं और आत्महत्या कर ली. जब इस बात का पता भगवान शिव को चला तो वो सती के जले शरीर को अपने हाथों में लेकर तांडव करने लगे, जिससे इस ब्रह्मांड का विनाश होना तय हो गया. लेकिन विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र से सती के जले शरीर को काट कर शिव से अलग कर दिया. कटे शरीर के हिस्से जहां-जहां गिरे वो आज शक्ति पीठ के रूप में जाने जाते हैं.

कामाख्या मंदिर एक हिंदुओ का मंदिर है जो कामाख्या देवी को समर्पित है। देवी भागवत के सातवें स्कंध के अड़तालीसवें अध्याय में लिखा है कि, ‘यह क्षेत्र में समस्त भूमंडल में महाक्षेत्र माना गया है। यहां साक्षात् मां दुर्गा निवास करती हैं। इनके दर्शन-पूजन से सभी तरह के विघ्नों से छुटकारा मिलता है। यहां तंत्र साधना करने वालों को जल्द ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसी महिमा अन्य कहीं ओर मिलना कठिन है।
कामाख्या मंदिर के गर्भ गृह में कोई मूर्ति नहीं है,योनि के आकार का एक कुंड है, जिसमे से जल निकलता रहता है। यह योनिकुंड कहलाता है। यह योनिकुंड कपडे व फूलो से ढका रहता है। प्रत्येक वर्ष तीन दिनों के लिए यह मंदिर पूरी तरह से बंद रहता है। माना जाता है कि माँ कामाख्या इस बीच रजस्वला (मासिक धर्म) में होती हैं। और उनके शरीर से रक्त निकलता है। पूरा कपडा लाल हो जाता है। इस दौरान शक्तिपीठ की अध्यात्मिक शक्ति बढ़ जाती है।
चौथे दिन माता के मंदिर का द्वार खुलता है। माता के भक्त और साधक दिव्य प्रसाद पाने के लिए बेचैन हो उठते हैं। यह दिव्य प्रसाद होता है लाल रंग का वस्त्र जिसे माता राजस्वला होने के दौरान धारण करती हैं। माना जाता है वस्त्र का टुकड़ा जिसे मिल जाता है उसके सारे कष्ट और विघ्न बाधाएं दूर हो जाती हैं। साल के वो तीन दिन यहाँ मेले का आयोजन होता है जिन्हें अम्बुबाची मेला कहा जाता है। इसमें देश के विभिन्न भागों से तंत्रिक और साधक यहाँ आते हैं।
कामाख्या मंदिर पूजा
दुर्गा पूजा : – हर साल सितम्बर-अक्टूबर के महीने में नवरात्रि के दौरान इस पूजा का आयोजन किया जाता है।
अम्बुबाची पूजा : – ऐसी मान्यता है कि अम्बुबाची पर्व के दौरान माँ कामाख्या रजस्वला होती है इसलिए तीन दिन के लिए मंदिर बंद कर दिया जाता है। चौथे दिन जब मंदिर खुलता है तो इस दिन विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।
पोहन बिया : – पूसा मास के दौरान भगवान कमेस्शवरा और कामेशवरी की बीच प्रतीकात्मक शादी के रूप में यह पूजा की जाती है
दुर्गाडियूल पूजा : – फाल्गुन के महीने में यह पूजा की जाती है।
वसंती पूजा : – यह पूजा चैत्र के महीने में कामाख्या मंदिर में आयोजित की जाती है।
मडानडियूल पूजा : – चेत्र महीने में भगवान कामदेव और कामेश्वरा के लिए यह विशेष पूजा की जाती है।
यात्रा करने के लिए उचित समय : – कामाख्या मंदिर जाने के लिए सबसे अच्छा मौसम अक्टूबर से मार्च का माना जाता है।
परिवहन: – ये मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से आठ किलो मीटर दूरी पर नीलाचल नामक पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी की तराई में प्रवेश द्वार है। इस प्रवेश-द्वार से ऊपर जाने में एक किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। इसके अतिरिक्त पर्वत-शिखर तक पक्का मार्ग बना है। प्रवेश-द्वार के सामने ही मिलने वाली मोटर-टैक्सियां देवीपीठ तक पहुंचा देती हैं। गुवाहाटी देश के शहरों से एयर, ट्रेन और सड़क मार्ग द्वारा भली – भांति जुड़ा हुआ है। गुवाहाटी में ही एयरपोर्ट हे जो देश के प्रमुख शहरो से जुड़ा हुआ है।